रैबार पहाड़ का :उतराखंण्ड के ढोल संस्कृति को संवारने का अभी भी वक्त है!
प्रसार भारती के दूरदर्शन और आकाश्वाणी में उतराखंण्ड के ढोल वादक अब पंजीकृत संगीतकार के रुप में प्रस्तुतिकरण करेंगे, राज्य के लघु उद्योग में ढोल वादन को एक ब्यवसाय मान्य किया गया है, राज्य नियंत्रित बद्री-केदार मंदिरों में ढोलवादक नियमित कर्मचारी हैं, और संस्कुति विभाग में गुरु-शिष्य परंपरा के तहत ढोल प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं वहीं ढोली कलाकारों को अलग से वृद्धावस्था पेंसन है। और ये सब एक ब्यक्ति के सतत प्रयासों से सम्भव हुआ है जो चुपचाप इस मुहिम को आगे बढ़ा रहा है नाटककार गजेंद्र नौटियाल।
गजंेद्र नौटियाल बताते हैं कि गैरसरकारी संस्था श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संस्थापक स्वामी मन्मथन की पुण्यतिथि पर 1995 में 6 दिन का आयोजन ढोल संस्कृति पर किया गया था। इसके बाद संस्था के माध्यम से ही उन्होंने ढोलियों की स्थिति पर एक गहन सर्वेक्षण किया था जिसके आधार पर सरकारोें के साथ जनवकालात के लिए एक पुस्तक निकाली गई उतरांचल में ढोल, ढोली और ढोल वादन।
संस्था से हटकर गजेंद्र नौटियाल ने इसे एक मुहिम के तौर पर लिया और राज्य सरकार के विभिन्न विभागों, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से लेकर प्रसार भारती तक दर्जनो नीति निर्माताओं तक तथ्यों के साथ ढोल संस्कृति संरक्षण के लिए ब्यवहारिक पहल करने के लिए शासन स्तर पर सहमति बनाने में कामयाबी पाई।
नौटियाल कहते हैं कि आज उद्योग नीति में शामिल होने से ढोल के आर्केस्टा देहरादन, कोटद्वार, हरिद्वार जैसे शहरों में हैं, विश्वविद्यालयों में ढोल पर शोध और प्रशिक्षण शामिल हो गए हैं। ढोल राज्य वाद्ययंत्र घोषित हो गया है और सबसे बड़ी बात राज्य के अकादमिक बुद्धिजीवी जब भी संस्कृति, भाषा पर बात करता है तो ढोल उसमें स्वतः शामिल हो जाता है। लेकिन 1995 में जो सवाल था‘‘ढोली रहेगा तो ढोल बजेगा’’ वह आज भी वहीं खड़ा है। वे बताते हैं कि इसके लिए उतराखंण्ड की एक संस्कृति नीति बननी चाहिए जिसके लिए ढोल-संस्कृति को पल्लवित करने के लिए ब्यवहारिक उपाय सरकारी संरक्षण में किए जाने का स्पष्ट निर्धारण हो तभी जनसांमान्य में भी सहयोग करने का विचार बन पायेगा। क्योंकि ढोल की संस्कृति को बचाकर ही सदानीरा नदी, आक्सिजन बैंक के इस क्षेत्र को बचाया जा सकता है।