चर्चा में पौड़ी पौड़ी के जिलापंचायत अध्यक्ष बनकर देहरादून क्यों दौडी

त्रिस्तरीय चुनाव नतीजों ने खोली सियासत की परतें, गढ़वाल नेताओं के साथ भेदभाव के लग रहे आरोप

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पौड़ी से कुलदीप बिष्ट की रिपोर्ट 

 

उत्तराखंड के गठन के बाद से ही पौड़ी जिले की उपेक्षा का मुद्दा बार–बार उठता रहा है। अब हाल ही में सम्पन्न त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर इस बहस को हवा दे दी है। भाजपा की अधिकृत प्रत्याशी रचना बुटोला ने जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर जीत दर्ज कर पौड़ी का मान बढ़ाया, लेकिन जीत का जश्न मनाने के बजाय राजनीतिक पिच फिर से राजधानी देहरादून की ओर सरक गई। चुनाव परिणाम आने के बाद गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी, कैबिनेट मंत्री डॉ. धन सिंह रावत और पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज पौड़ी पहुंचे थे। यहां भाजपा समर्थित प्रत्याशी की जीत का स्वागत और कार्यकर्ताओं से मुलाकात भी हुई। लेकिन आश्चर्य की बात यह रही कि विजेता प्रत्याशी रचना बुटोला को पौड़ी में सम्मानित करने के बजाय सीधे देहरादून बुलाकर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मुलाकात करवाई गई। यही वजह है कि अब सवाल उठने लगे हैं कि क्या पौड़ी की राजनीति और नेतृत्व को फिर से दरकिनार किया जा रहा है। कांग्रेस ने इस पूरे घटनाक्रम को लेकर भाजपा पर तीखा प्रहार किया है। पार्टी के प्रदेश सचिव ने आरोप लगाया कि “पहाड़ के नेताओं को लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा है। नवनिर्वाचित जिला पंचायत अध्यक्ष को पौड़ी में सम्मान देने के बजाय देहरादून बुलाना इस बात का साफ संकेत है कि श्रेय पहाड़ के नेताओं को न देकर सबकुछ राजधानी केंद्रित कर दिया जाता है।”
कांग्रेस नेताओं का कहना है कि यह परंपरा अब प्रदेश की राजनीति में गहरी जड़ें जमा चुकी है और यह पहाड़ की असली ताकत को कमजोर करने का प्रयास है।

हालांकि भाजपा जिलाध्यक्ष कमल किशोर रावत ने इन आरोपों को खारिज किया है। उन्होंने कहा कि गढ़वाल सांसद अनिल बलूनी, कैबिनेट मंत्री डॉ. धन सिंह रावत और पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज का कार्यक्रम पहले से तय था, जिसके चलते उन्हें पौड़ी से प्रस्थान करना पड़ा। रावत ने यह भी कहा कि भाजपा हमेशा से ही पहाड़ और मैदान की राजनीति में संतुलन बनाने के पक्ष में रही है।
दरअसल, उत्तराखंड बनने के बाद से ही पौड़ी की उपेक्षा का मुद्दा बार–बार सामने आता रहा है। एक समय पौड़ी राजनीति और नौकरशाही का गढ़ माना जाता था, लेकिन धीरे–धीरे हालात ऐसे बने कि आज न सिर्फ प्रशासनिक गतिविधियाँ बल्कि राजनीतिक गतिविधियाँ भी देहरादून केंद्रित होकर रह गई हैं।
स्थानीय जनता और राजनीतिक जानकार मानते हैं कि राजधानी देहरादून में सत्ता का केंद्रीकरण होने के कारण पहाड़ की असली समस्याएँ और नेतृत्व हाशिये पर चला गया है।

अब जबकि पंचायत चुनावों में भाजपा को बड़ी जीत मिली है, सवाल यह है कि
* क्या इस जीत का असली श्रेय पहाड़ के कार्यकर्ताओं और नेताओं को मिलेगा या सबकुछ राजधानी की राजनीति में समा जाएगा?
* क्या पौड़ी जैसे जिलों की उपेक्षा का सिलसिला यहीं थमेगा या फिर और गहराएगा?
* और सबसे अहम, क्या भाजपा सच में “पहाड़ और मैदान” की राजनीति को बराबरी का मंच दे पाएगी?

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